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5 वर्ष की आयु के बाद कैफी आजमी ने अपने गांव मिजवां में ही रहने का निर्णय किया

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फिल्म जगत के मशहूर शायर और गीतकार कैफी आजमी ने 14 जनवरी को जन्म लिया था। आज उनकी सालगिरह के मौके पर देश में अलग अलग जगह जश्न मनाया जा रहा है। इसकी जानकारी बेटी शबाना आजमी ने ट्वीटर के जरिए दी। कैफी आजमी ने महज ग्यारह साल की उम्र से ही मुशायरों मे हिस्सा लेना शुरू कर दिया था जहां उन्हें काफी दाद भी मिला करती थी। लेकिन बहुत से लोग जिनमे उनके पिता भी शामिल थे ऐसा सोचा करते थे कि कैफी आजमी मुशायरों के दौरान खुद की नही बल्कि अपने बड़े भाई की गजलों को सुनाया करते हैं। सालगिरह के मौके पर पढ़ें ऐसी ही रोचक बातें…
14 जनवरी 1919 को उत्तर प्रदेश मे आजमगढ़ जिले के मिजवां गांव मे जन्मे सैयद अतहर हुसैन रिजवी उर्फ कैफी आजमी के पिता जमींदार थे। पिता हुसैन उन्हें ऊंची से ऊंची तालीम देना चाहते थे और इसी उद्देश्य से उन्होंने उनका दाखिला लखनउ के प्रसिद्ध सेमिनरी सुल्तान उल मदारिस में कराया था।एक बार पुत्र की परीक्षा लेने के लिये पिता ने उन्हें गाने की एक पंक्ति दी और उसपर उन्हें गजल लिखने को कहा। कैफी आजमी ने इसे एक चुनौती के रूप मे स्वीकार किया और उस पंक्ति पर एक गजल की रचना की। उनकी यह गजल काफी लोकप्रिय हुई और बाद मे सप्रसिद्ध पाश्र्व गायिका बेगम अख्तर ने उसे अपना स्वर दिया। गजल के बोल कुछ इस तरह से थे ‘इतना तो जिंदगी मे किसी की खलल पड़े ना हंसने से हो सुकून ना रोने से कल पड़े।’
कैफी आजमी महफिलों में शिरकत करते वक्त नज्मों को बड़े प्यार से सुनाया करते थे। इसके लिये उन्हें कई बार डांट भी सुननी पड़ती थी जिसके बाद वह रोते हुये अपनी वालिदा के पास जाते और कहते ‘अम्मा देखना एक दिन मै बहुत बड़ा शायर बनकर दिखाउंगा।’
कैफी आजमी कभी भी उच्च शिक्षा की ख्वाहिश नही रखते थे। सेमिनरी मे अपनी शिक्षा यात्रा के दौरान वहां की कुव्यवस्था को देखकर कैफी आजमी ने छात्र संघ का गठित किया और अपनी मांगों की पूर्ति नहीं होने पर छात्रो से हड़ताल पर जाने की अपील की। कैफी आजमी की अपील पर छात्र हड़ताल पर चले गये और इस दौरान उनका धरना करीब डेढ़ साल तक चला। लेकिन इस हड़ता-ल के कारण कैफी आजमी सेमिनरी प्रशासन के कोपभाजन बने और धरने की समाप्ति के बाद उन्हें सेमिनरी से निकाल दिया गया। इस हड़ताल से कैफी आजमी को फायदा भी पहुंचा और इस दौरान कुछ प्रगतिशील लेखको की नजर उनपर पड़ी जो उनके नेतृत्व को देखकर काफी प्रभावित हुये थे । उन्हें कैफी आजमी के अंदर एक उभरता हुआ कवि दिखाई दिया और उन्होंने उनको प्रोत्साहित करने एवं हर संभव सहायता देने की पेशकश की।
1942 मे कैफी आजमी उर्दू और फारसी की उच्च शिक्षा के लिये लखनऊ और इलाहाबाद भेजे गये लेकिन कैफी ने कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया
की सदस्यता ग्रहण करके पार्टी कार्यकर्ता के रूप मे कार्य करना शुरू कर दिया और फिर भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल हो गये। इस बीच मुशायरो मे कैफी आजमी की शिरकत जारी रही। इसी दौरान 1947 मे एक मुशायरे मे भाग लेने के लिये वह हैदराबाद पहुंचे जहां उनकी मुलाकात शौकत आजमी से हुई और उनकी यह मुलाकात जल्दी ही शादी मे तब्दील हो गई। आजादी के बाद उनके पिता और भाई पाकिस्तान चले गये लेकिन कैफी आजमी ने हिंदुस्तान में ही रहने का निर्णय लिया।
शादी के बाद बढ़ते खर्चो को देखकर कैफी ने एक उर्दू अखबार के लिए लिखना शुरू कर दिया जहां से उन्हें 150 रुपए माहवार वेतन मिला करता था। उनकी पहली नज्म ‘सरफराज’ लखनऊ में छपी ।शादी के बाद उनके घर का खर्च बहुत मुश्किल से चल पाता था। उन्होंने एक अन्य रोजाना अखबार मे हास्य व्यंग्य भी लिखना शुरू किया। इसके बाद अपने घर के बढ़ते खर्चो को देख कैफी आजमी ने फिल्मी गीत लिखने का निश्चय किया ।
कैफी ने सबसे पहले शाहिद लतीफ की फिल्म ‘बुजदिल’ के लिए दो गीत लिखे जिसके एवज मे उन्हें 1000 रुपये मिले। इसके बाद वर्ष 1959 में प्रदर्शित फिल्म फिल्म कागज के फूल के लिए कैफी आजमी ने ‘वक्त ने किया क्या हसीं सितम तुम रहे ना तुम हम रहे ना हम’ जैसा सदाबहार गीत लिखा। वर्ष 1965 में प्रदर्शित फिल्म ‘हकीकत’ में उनके रचित गीत ‘कर चले हम फिदा जानों तन साथियो अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों’ की कामयाबी के बाद कैफीआजमी सफलता के शिखर पर जा पहुंचे ।
बहुमुखी प्रतिभा के धनी कैफी आजमी ने फिल्म गर्म हवा की कहानी संवाद और स्क्रीन प्ले भी लिखे जिनके लिये उन्हे फिल्म फेयर के पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। फिल्म हीर-रांझा के संवाद के साथ-साथ कैफी आजमी ने श्याम बेनेगल की फिल्म ‘मंथन’ की पटकथा भी लिखी।लगभग 75 वर्ष की आयु के बाद कैफी आजमी ने अपने गांव मिजवां में ही रहने का निर्णय किया। अपने रचित गीतों से श्रोताओं को भावविभोर करने वाले महान शायर और गीतकार कैफी आजमी 10 मई 2002 को इस दुनिया को अलविदा कह गए।

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