पर्यावरण के लिए प्राकृतिक संसाधनों को बचाने और बढ़ाने वाले राजनीतिक सोच पैदा करें
कृषि / पर्यावरण, ताज़ा ख़बर, ताज़ा समाचार, प्रमुख ख़बरें, सम्पादकीय May 31, 2014 , by ख़बरें आप तकपर्यावरण एक ऐसा विषय है, जिससे सभी का रिश्ते करीब-करीब एक समान है. जिस तेजी से पर्यावरण का संकट बढ़ रहा है, उस हिसाब से सरकार, समुदाय और व्यक्ति का चिंचित होना स्वाभाविक है. दुनिया के कई देशों ने इसकी गंभीरता को इस रूप में समझा कि वहां पर्यावरण और हरियाली विषय को लेकर राजनीतिक पार्टियां बन रही हैं. सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन बन रहे हैं. वहां पर्यावरण चुनावी मुद्दे हैं.
भारत में पर्यावरण और इससे जुड़े विभिन्न विषयों को लेकर सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन तो बन रहे हैं, लेकिन यह राजनीतिक मुद्दा अब तक नहीं बन सका. अभी लोकसभा चुनाव हुआ. इसमें सभी राजनीतिक दलों ने ढेरों मुद्दे उठाये और वोट मांगें, लेकिन पर्यावरण और हरियाली को बचाने को लेकर प्रमुखता से किसी ने बात नहीं की. इसकी एक बड़ी वजह यह भी मानी जा सकती है कि भारतीय जनमानस में पर्यावरण और उससे जुड़ी समस्याएं अब तक राजनीतिक रूप नहीं सकी हैं, जबकि पर्यावरण का संबंध सीधे तौर पर गांव के लोगों से भी है. उसके जीवन और कर्म का ज्यादातर हिस्सा इसी पर निर्भर है. जिस तरह से गांव-पंचायत क्षेत्र में खनिजों का उत्खनन हो रहा है और तेजी बड़ी कंपनियां इस काम में शामिल होती जा रही हैं, यह एक गंभीर मुद्दा बन गया है.
बात चाहे बालू उत्खनन की हो या कोयला, अबरख और अन्य खनिजों का, सब का संबंध पर्यावरण से है. समय के साथ नये-नये इलाकों में खनिजों के उत्खनन का दबाव बढ़ेगा. उसी अनुपात में जनसंघर्ष भी तेज होगा. अगर किसी क्षेत्र का मूलवासी-आदिवासी समाज सरकार की खनन कार्य संबंधी स्वीकृति का विरोध कर रहा है, तो इसके मूल में केवल जमीन से उनका जुड़ाव और विस्थापन का डर ही नहीं है. संस्कृति और पर्यावरण को होने वाला खतरा भी इसमें शामिल है. इसलिए किसी भी दूसरे स्थानीय या राष्ट्रीय मुद्दे से पर्यावरण और हरियाली कम महत्वपूर्ण नहीं है. इसे लेकर गांव-पंचायत के लोगों को संगठित होना होगा और ऐसे राजनीतिक -गैर राजनीतिक संगठन बनाने होंगे, शुद्ध रूप से पर्यावरण की बात कर सके. इन सब के लिए केवल सरकार को चौकीदार मान लेना काफी नहीं है. चौकीदार की नीयत और उस पर किये किये गये भरोसे की नियति को भी देखना होगा. वन एवं पर्यावरण, जिसे इन सब की जवाबदेही दी गयी है, उसके नियमों, कानूनों और काम करने के तौर तरीकों को जानना भी जरूरी होगा. साथ ही उसके कामकाज और नीति निर्धारण में जनता के हस्तक्षेप की संभावनाएं भी तलाशनी होगी. इसके लिए हमारे पास सूचना का अधिकार अधिनियम जैसे कारगर हथियार भी है, जिसका हम आसानी से इस्तेमाल कर सकते हैं. हम इस अंक में इन्हीं विषयों पर बात कर रहे हैं.
नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल पर्यावरण के क्षेत्र में देश की बड़ी एजेंसी है. यह वन एवं पर्यावरण विभाग के अधीन है. इसका मकसद पर्यावरण से संबंधित किसी भी तरह के कानूनी अधिकार को लागू करने तथा इससे किसी व्यक्ति या संपत्ति होने वाले नुकसान के मामले में हस्तक्षेप करना है. यह संबंधित व्यक्ति को पर्यावरण संबंधी कानून के तहत सहायता उपलब्ध कराता है और क्षतिपूर्ति भी दिलाता है. यह एक कानून के तहत गठित है, जिसे राष्ट्रीय हरित अधिकरण अधिनियम 2010 के नाम से जानते हैं. यह 18 अक्तूबर 2010 को गठित हुआ और तब से काम कर रहा है. यह नैसर्गिक न्याय के तहत लोगों और पर्यावरण के हितों की हिफाजत के लिए कानूनी तौर पर हस्तक्षेप करता है. कोई भी प्रभावित व्यक्ति इसके समक्ष अपील दायर कर सकता है. इसे पर्यावरण संरक्षण एवं वनों तथा अन्य प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण से संबंधित मामलों के प्रभावी तरीके और जल्दी निबटाने का दायित्व मिला हुआ है. इसके कामकाज और इसके फैसलों को लेकर भारत का कोई भी नागरिक आरटीआइ का इस्तेमाल कर सकता है. पर्यावरण संबंधी मामलों में अधिकरण अपने क्षेत्रधिकार के तहत तीव्र पर्यावरणीय न्याय प्रदान करता है. साथ ही उच्च न्यायालयों में मुकदमेबाजी के भार को कम करने में सहायता करता है. अधिकरण आवेदन या अपील प्राप्त होने के तीन महीने के अंदर उनके निष्पादन करता है.
जल प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए जल (प्रदूषण निवारण और नियंत्रण) अधिनियम है. यह जल प्रदूषण के नियंत्रण और रोकथाम तथा देश में पानी की स्वास्थ्य उपलब्धता बनाये रखने के लिए 1974 में बनाया गया. इसे 1988 में संशोधित किया गया. 1977 में जल (प्रदूषण निवारण और नियंत्रण) उपकर अधिनियम बनाया गया. यह औद्योगिक क्षेत्र में पानी के उपयोग को लेकर उत्पन्न परिस्थितियों को नियंत्रित करने के लिए है. यह बेहद अहम कानून है. औद्योगिक इकाइयों को पानी के इस्तेमाल को लेकर यह दिशा निर्देश देता है. यह बताता कि कोई औद्योगिक इकाई किन शर्तो पर, कितना और कैसे पानी इस्तेमाल करेगा तथा अगर इसमें किसी प्रकार की मनमानी होती है, तो उससे कैसे निबटा जा सकता है. इसे 2003 में संशोधन किया गया.
वायु प्रदूषण को रोकने के लिए भी कानून है. यह वायु (प्रदूषण निवारण और नियंत्रण) अधिनियम कहा गया है. यह कानून 1981 में बना. भारत में वायु प्रदूषण नियंत्रण और रोकथाम के लिए यह कानून बनाया गया है. इसे 1987 में संशोधित किया गया. पर्यावरण के मामले में यह कानून बेहद महत्वपूर्ण है. यह ऐसे सभी कार्यो और व्यापारों पर लागू है, जो हवा में ऐसे तत्वों को बढ़ाते हैं, जिससे हवा दूषित होती है.
पर्यावरण प्रदूषण का दायरा इतना बड़ा है कि तमाम कोशिशें और सतर्कता के बावजूद जीवन-जंतु इसके प्रभाव में आते हैं. यह प्रदूषण किसी भी रूप में हो सकता है. जैसे हवा, पानी, ध्वनि आदि. इसका प्रभाव मानव, पशु और पेड़-पौधे सभी पर पड़ता है. यह उस स्थिति में भी होता है, जब पर्यावरण विभाग जांच-परख के बाद किसी को कोई रासायनिक उत्पादन की अनुमति देता है और सतर्कता के बीच उसका कारोबार कराता है. ऐसे रासायनिक उत्पादन किसी भी रूप में प्रदूषण पैदा कर नुकसान करा सकते हैं. जैसे भोपाल में गैस रिसने का कांड हुआ था.
वह बहुत बड़े पैमाने पर हुआ नुकसान था. छोटे स्तर पर भी इस तरह के नुकसान होते हैं. कई बार ऐसी फैक्टरी होती है, तो अपना गंदा पानी सार्वजनिक तालाब में बहा देती है. इससे तालाब का पानी विषाक्त हो जाता है और उसमें रहने वाली मछलियां या तो मर जाती हैं या फिर जहरीली हो जाती है. मछलियों के मरने से मछली पालक को नुकसान होता है और मछली के जहरीली होने से उसे खाने वाले के स्वास्थ्य पर उसका असर पड़ता है. यह दोनों ही नुकसान गंभीर है. ऐसे तालाब का पानी पीने से मवेशी मर जाते हैं या बीमार हो जाते हैं. यही हाल हवा और ध्वनि के मामले में भी है. ऐसी स्थिति में नुकसान की भरपाई का भार ऐसे सामान का उत्पादन करने वाली कंपनी पर होता है. इसके लिए सार्वजनिक दायित्व बीमा अधिनियम है. इसे 1991 में लागू किया गया है. इसका मुख्य उद्देश्य किसी भी खतरनाक पदार्थ से दुर्घटनाग्रस्त पीड़ितों को क्षति के लिए हर्जाना दिलाना है. यह अधिनियम किसी भी खतरनाक रसायनों के उत्पादन या उसके परिवहन से जुड़े सभी मालिकों के लिए लागू होता है.
पर्यावरण संबंधी तमाम नियम-कानून के बावजूद नुकसान और नुकसान की आशंका को पूरी तरह नहीं टाला जा सकता है. दूसरी बात कि विकास के लिए कुछ ऐसे कदम उठाने जरूरी हैं, जो पर्यावरण को नुकसान तो पहुंचाते हैं, लेकिन उसके बगैर विकास कार्य आगे नहीं बढ़ सकता है. ऐसे मामलों को देखने के लिए वन एवं पर्यावरण मंत्रलय से अलग से संस्थागत व्यवस्था की है. यह राष्ट्रीय पर्यावरण अपीलीय प्राधिकरण है. यह पर्यावरण और वन मंत्रलय द्वारा कुछ प्रतिबंधित क्षेत्रों में ऐसे मामलों को देखने के लिए है, जिन क्षेत्रों में पर्यावरण मंजूरी आवश्यक है. यह केंद्रीय कानून के तहत गठित है. यह कानून राष्ट्रीय पर्यावरण अपीलीय प्राधिकरण अधिनियम नाम से जाना जाता है. यह कानून 1997 में लागू हुआ. इसे उन मामलों को हल करने के लिए बनाया, जिनमें पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 के तहत प्रतिबंध क्षेत्रों में कोई उद्योग लगाना जरूरी हो. यह ऐसे क्षेत्रों में उद्यो लगाने, उसके संचालन या प्रक्रि या के मामले में अपील की सुनवाई करता है और फैसले देता है.
राष्ट्रीय पर्यावरण अधिकरण की स्थाना 1995 में केंद्र सरकार द्वारा की गयी. यह राष्ट्रीय पर्यावरण ट्रिब्यूनल (अधिनियम 1995 राष्ट्रीय पर्यावरण ट्रिब्यूनल के माध्यम से) खतरनाक पदार्थों की हैंडलिंग के कारण दुर्घटनाओं से क्षतिपूर्ति कराता है.
भारत सरकार ने देश के वन्य जीवन की रक्षा करने और प्रभावी ढंग से अवैध शिकार, तस्करी और वन्य जीवन और उससे जुड़े अवैध व्यापार को रोकने के लिए वन्य जीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 लागू है. यह अधिनियम जनवरी 2003 में संशोधित किया गया. इस कानून के तहत अपराधों के लिए सजा एवं जुर्माने को और अधिक कठोर बना दिया गया है. सरकार ने अधिनियम को मजबूत बनाने के लिए कानून में और संशोधन करके और अधिक कठोर उपायों को शुरू करने का प्रस्ताव किया है.
आस्ट्रेलिया में भी पर्यावरण के नाम पर चुनाव लड़े और जीते गये हैं. आस्ट्रेलियन लेबर पार्टी सत्ता में आयी यह कहते हुए कि तत्कालीन सत्ताधारी दल पर्यावरण के मुद्दों को सूली पर टांग रही है, लेकिन सत्ता में आने के बाद लेबर पार्टी पहले की जान हार्वर्ड सरकार से भी बुरे तरीके से पर्यावरणीय मुद्दों के साथ डील कर रही है. साफ है घोषणाएं करने से पर्यावरण को नहीं बचाया जा सकता.
अपने देश में इस बार के लोकसभा चुनाव में भले पूरी प्रमुखता ो पर्यावरण का मुद्दा न उठा हो और उसके चुनाव नतीजे का आधार नहीं बनाया गया हो, लेकिन इसके बावजूद छिटपुट रूप से करीब-करीब सभी राजनीतिक दलों ने पर्यावरण पर बात की है. यह इस बात का संकेत है कि अगर गांव-पंचायत के लोग अभी से इस मुद्दे को लेकर संगठित हों, तो अगले चुनावों में पर्यावरण बड़ा और नतीजा देने वाला मुद्दा बन सकता है.
भाजपा कह रही है कि बाघों को बचाने के लिए वह टास्क फोर्स का गठन करेगी और यही टास्क फोर्स अन्य सभी प्रकार के वन्य जीवन के संरक्षण की दिशा में भी काम करेगा
पानी और बिजली के बारे में भी पर्यावरण के अनुकूल व्यवहार करने की बात सभी राजनीतिक दल करते हैं. लेकिन इन बातों से अलग हम देख रहे हैं कि पर्यावरण कहीं मुद्दा नहीं है. पर्यावरण अभी भी इस देश में मुद्दा इसलिए नहीं है क्योंकि हमारा पर्यावरण के प्रति जो दृष्टिकोण है वह ही हमारा अपना नहीं है. भारत में जब हम पर्यावरण की बात करते हैं तो हमें आर्थिक नीतियों के बारे में सबसे पहले बात करनी होगी. हमें यह देखना होगा कि हम कैसी आर्थिक नीति पर काम कर रहे हैं. अगर हमारी आर्थिक नीतियां ऐसी हैं जो पर्यावरण को अंतत: क्षति पहुंचाती हैं तो पर्यावरण संरक्षण की बात का कोई खास मतलब नहीं रह जाता है. हमें ऐसी नीतियां चाहिए जो स्थानीय लोगों को उनके संसाधनों पर हक प्रदान करती हों. जल, जंगल और जमीन पर जब तक स्थानीय लोगों का स्वामित्व नहीं होगा पर्यावरण संरक्षण के वादे
केवल हवा हवाई वादे ही होंगे. हमें ऐसी पर्यावरण नीति को अपनाना होगा जो प्राकृतिक संसाधनों को बचाने की बजाय बढ़ाने वाले होने चाहिए. हम जब पर्यावरण के बारे सोचें तो केवल पर्यावरण के बारे में न सोचें. बल्कि उन लोगों के बारे में भी सोचें जो उस पर्यावरण स्रोतों पर निर्भर हैं.
पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने में सबसे बड़ी भूमिका खुले में शौच की है. खुले में शौच के कारण दुनिया के कई देशों में गंभीर बीमारियां फैली हुई है. सबसे दुखद सह है कि आदिम काम से चली आ रही यह प्रथा अब तक खत्म नहीं हुई, जबकि गांवों मोबाइल और अन्य आधुनिक सुविधाएं पहुंच चुकी है. शौच का संबंध केवल लाज-शर्म तक सीमित नहीं है. यह गंभीर रूप से प्रदूषण पैदा कर रहा है. यह पानी और हवा दोनों को दूषित करने वाली प्रथा है. इसके खिलाफ आवाज उठाने के लिए पंचायत के युवाओं को आगे आना चाहिए. इसके लिए सरकार की योजनाओं को तक सीमित रहने की बजाय युवा अगर अपने गांव की प्रतिष्ठा और पर्यावरण को बचाना चाहें, तो खुले में शौच के खिलाफ संगठित होकर अभियान चला सकते हैं. देश के कई हिस्सों में युवाओं ने इस तरह की पहल कर ठोस परिणाम लाया है.
पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय ने 2022 तक ग्रामीण स्वच्छता और सफाई का लक्ष्य तय किया है. इसका उद्देश्य निर्मल भारत की सपने को साकार करना और एक ऐसा परिवेश बनाना है, जो स्वच्छ तथा स्वास्थ्यकर हो. खुले स्थान पर मल त्याग की पारंपरिक प्रथा को पूरी तरह समाप्त करना है. प्रत्येक व्यक्ति को सम्मान देने के साथ उसके जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाना है.
संपूर्ण स्वच्छता अभियान द्वारा केंद्रीय ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम की तुलना में लक्ष्य को तेजी से प्राप्त किया जा रहा था. विशेषकर ग्रामीणों में स्वच्छता व स्वास्थ्य को लेकर काफी हद तक जागरुकता आयी. निर्मल ग्राम पुरस्कार के द्वारा कई गांव, प्रखंड व जिले यहां तक कि राज्य भी खुले में शौच से मुक्त हो गये, लेकिन वे राज्य जहां शिक्षा व क विकास कम हुए, जहां पंचायती राज व्यवस्था मजबूत न हो पायी, जहां निम्न मध्य वर्ग अधिक हैं, वहां संपूर्ण स्वच्छता अभियान ने आंशिक सफलता प्राप्त की. ग्रामीण क्षेत्रों को खुला शौचमुक्त करने के लिए भारत सरकार द्वारा चलाये गये संपूर्ण स्वच्छता अभियान का नाम बदल दिया गया. अब इस अभियान का नाम निर्मल भारत अभियान किया गया है.
पर्यावरण से जुड़े किसी भी विषय पर आप संबंधित विभाग या कार्यालय से सूचना मांग सकते हैं. 30 दिनों में सूचना नहीं मिलने पर आप उसी विभाग में प्रथम अपील और जरूरत पड़ेने पर राज्य सूचना आयोग में द्वितीय द्वितीय अपील दायर कर सकते हैं.
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