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दलहन एवं तिलहन की त्रासदी

कृषि / पर्यावरण

भारतवर्ष प्रमुखत: शाकाहारी देश है। प्रोटीन एवं वसा की पूर्ति के लिये दलहन एवं तिलहन का सेवन करना हमारी दिनचर्या एवं जीवन का अंग है। एक समय था जब हम दलहन एवं तिलहन में आत्मनिर्भर थे तथा अपनी स्वदेशी परम्परागत किस्मों का सेवन करते थे। परंतु समय के साथ सिंचाई साधनों की बढ़ोत्तरी से अधिक पानी एवं उत्पादन देने वाले खाद्यान्न विशेष रूप से गेहूं एवं चावल पर अधिक जोर कृषकों एवं शासन दोनों के द्वारा दिया जाने लगा।
शासन द्वारा समर्थन मूल्य एवं बोनस के साथ इन दोनों किस्मों का क्रय कृषकों से किया। दलहन एवं तिलहन का समर्थन मूल्य पर क्रय करने की प्रक्रिया कभी शुरू भी की थी तो सीमित दायरे में की गई। इन सबके फलस्वरूप दलहन एवं तिलहन दोनों का ही उत्पादन वर्ष 2004-05 के बाद या तो स्थिर हो गया या फिर इसमें गिरावट कभी आती रही। फलस्वरूप बढ़ती जनसंख्या के मान से स्थानीय उत्पादन की उपलब्धि प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष घटती चली गई। इसकी पूर्ति के लिये शासन जो विदेशी मुद्रा बचाने की बात जोर-शोर से करता है, वे अनदेखी कर विदेशों से आयात करने का सरल उपाय अपनाया। आयात भी उन किस्मों का होता है जो विदेशों में उत्पादित की जाती हैं एवं हमारे कृषि जलवायु के अनुकूल नहीं रहती हैं। इन आयातित जिन्सों का उपयोग भारतीय उपभोक्ता लाचारी में मन मारकर ही करता है।
वर्ष 2014-15 विशेष रूप से जून 2015 से सितम्बर 2015 की अवधि में अलनीनो के प्रभाव से अनियमित एवं अल्प वर्षा के फलस्वरूप खरीफ में तो दलहन-तिलहन का उत्पादन न्यूनतम ही हुआ है। बाजार में अभी इसका प्रभाव दलहनों पर दिख रहा है, और अरहर की दाल जो रु. 80-90 प्रति किलो उपलब्ध हो जाया करती थी उसका भाव रु. 200 प्रति किलो को पार कर गया है,स्थिति विषम है। तिलहनों का पूर्व स्टाक होने से उस पर प्रभाव अभी नहीं दिख रहा है परंतु सोयाबीन के अत्यधिक कम उत्पादन के फलस्वरूप असर नवम्बर माह के बाद दिखने लगेगा। इस प्रकार दलहन एवं तिलहन की स्थिति कहां तक बदत्तर होगी कल्पना के बाहर है। भारत सरकार के द्वारा प्रोत्साहन स्वरूप दलहन के क्रय पर रु.200 प्रति क्विं. धन राशि देने की घोषणा की है। पर क्या इससे उपलब्धि बढ़ेगी। यह तो तब ही बढ़ेगी जब उत्पादन पर विशेष ध्यान एवं प्रोत्साहन दिया जावे तथा पूरे संसाधन इसमें लगा दिया जावे। वैसे भी मान्यता है कि कम लागत मूल्य पर दलहन-तिलहन उत्पादित किए जा सकते हैं। परंतु इनके लिये हमें अपनी नीति, तकनीकी एवं प्राथमिकता को बदलना होगा।
मैंने अपने आलेख रबी की प्राथमिकता दलहन एवं तिलहन (कृषक जगत दिनांक 19.09.2012) आज से तीन वर्ष पूर्व ही शासन का आगाह किया था कि इन दोनों ही आवश्यक जिन्सों में देश की स्थिति विषम हो रही है। इससे निपटने के लिये कृषकों से उम्मीद की गई थी कि लेख में दी गई तकनीकियों को अपनाते हुए स्वावलम्बी बनने के लिये अधिक से अधिक क्षेत्र में गेहूं की अपेक्षा दलहन एवं तिलहन की खेती करें।
इसी के साथ शासन से अपेक्षा की गई थी कि गेहूं पर दिये जाने वाले उत्पादन बोनस के स्थान पर कृषकों को दलहन एवं तिलहन क्षेत्र वृद्धि के रूप में बोनस कम से कम रु. 2500 प्रति हेक्टर दिया जावे। उपरोक्त आग्रह एवं अपेक्षा के विरूद्ध पिछले 3 वर्षों में कोई सार्थक पहल नहीं की गई। गेहूं का बोनस तो बंद हो गया, परंतु दलहन, तिलहन के लिये कुछ भी नहीं किया गया। लगातार दो वर्षों से कम वर्षा के फलस्वरूप स्थिति अत्यंत जटिल, कृषकों को भीषण संघर्ष करना पड़ रहा है। कम नमी एवं सिंचाई के लिये पानी की सीमित उपलब्धि को देखते हुए यह उचित समय है कि सभी प्राथमिकताओं के ऊपर दलहन-तिलहन उत्पादन के लिये सार्थक पहल की जावे। यदि समय रहते शासन एवं कृषक बंधु नहीं चेते तो इस मुहावरे को सार्थक होते देर नहीं लगेगी कि जब चिडिय़ा चुग गई खेत तो….।

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