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चिनाय सेठ.. जिनके घर शीशे के बने होते हैं वो दूसरो पे पत्थर नहीं फेंका करते’

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हिन्दी सिनेमा जगत में यूं तो अपने दमदार अभिनय से कई सितारों ने दर्शकों के दिलों पर राज किया, लेकिन एक ऐसा भी सितारा हुआ जिसने न सिर्फ दर्शकों के दिल पर राज किया बल्कि फिल्म इंडस्ट्री ने भी उन्हें ‘राजकुमार’ माना। वह थे संवाद अदायगी के बेताज बादशाह कुलभूषण पंडित उर्फ राजकुमार। लगभग चार दशक तक अपने संजीदा अभिनय से दर्शको के दिल पर राज करने वाले राजकुमार 3 जुलाई 1996 को इस दुनिया को अलविदा कह गए।पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत में 8 अक्टूबर 1926 को जन्मे राजकुमार स्नातक की पढाई पूरी करने के बाद वह मुंबई के माहिम पुलिस स्टेशन में सब इंस्पेक्टर के रूप में काम करने लगे। एक रात गश्त के दौरान एक सिपाही ने राजकुमार से कहा, ‘हजूर आप रंग ढंग और कद काठी में किसी हीरो से कम नहीं है। फिल्मों में यदि आप हीरो बन जायें तो लाखों दिलो में राज कर सकते हैं’ राजकुमार को सिपाही की यह बात जंच गई।
राजकुमार मुंबई के जिस थाने मे कार्यरत थे वहां अक्सर फिल्म उद्योग से जुड़े लोगो का आना जाना लगा रहता था। एक बार पुलिस स्टेशन में फिल्म निर्माता बलदेव दुबे कुछ जरूरी काम के लिए आए थे। वह राजकुमार के बातचीत करने के अंदाज से काफी प्रभावित हुए और उन्होंने राजकुमार से अपनी फिल्म ‘शाही बाजार’ में अभिनेता के रूप में काम करने की पेशकश की। राजकुमार सिपाही की बात सुनकर पहले ही अभिनेता बनने का मन बना चुके थे। इसलिए उन्होंने तुरंत ही अपनी सब इंस्पेक्टर की नौकरी से इस्तीफा दे दिया और निर्माता की पेशकश स्वीकार कर ली।शाही बाजार को बनने में काफी समय लग गया और राजकुमार को अपना जीवन यापन करना भी मुश्किल हो गया, इसलिए उन्होंने वर्ष 1952 मे प्रदर्शित फिल्म ‘रंगीली’ में एक छोटी सी भूमिका स्वीकार कर ली। यह फिल्म सिनेमाघरो में कब लगी और कब चली गई, यह पता ही नहीं चला। इस बीच उनकी फिल्म ‘शाही बाजार’ भी प्रदर्शित हुई, जो बाक्स आफिस पर औंधे मुंह गिरी।
‘शाही बाजार’ की असफलता के बाद राजकुमार के तमाम रिश्तेदार यह कहने लगे कि तुम्हारा चेहरा फिल्म के लिए उपयुक्त नहीं है। वहीं कुछ लोग कहने लगे कि तुम खलनायक बन सकते हो। 1952 से 1957 तक राजकुमार फिल्म इंडस्ट्री में अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष करते रहे। ‘रंगीली’ के बाद उन्हें जो भी भूमिका मिली राजकुमार उसे स्वीकार करते चले गए। इस बीच उन्होंने ‘अनमोल सहारा’, ‘अवसर’, ‘घमंड’, ‘नीलमणि’, और ‘कृष्ण सुदामा’ जैसी कई फिल्मों में अभिनय किया लेकिन इनमें से कोई भी फिल्म बॉक्स आफिस पर सफल नहीं हुई।
महबूब खान की वर्ष 1957 मे प्रदर्शित फिल्म ‘मदर इंडिया’ में राजकुमार गांव के एक किसान की छोटी सी भूमिका में दिखाई दिए। हालांकि यह फिल्म पूरी तरह अभिनेत्री नर्गिस पर केन्द्रित थी, फिर भी वह अपने अभिनय की छाप छोडने में कामयाब रहे। इस फिल्म की सफलता के बाद वह अभिनेता के रूप में फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित हो गए।1959 मे प्रदर्शित फिल्म ‘पैगाम’ में उनके सामने हिन्दी फिल्म जगत के अभिनय सम्राट दिलीप कुमार थे लेकिन राज कुमार ने यहां भी अपनी सशक्त भूमिका के जरिये दर्शकों की वाहवाही लूटने में सफल रहे। इसके बाद ‘दिल अपना और प्रीत पराई’, ‘घराना’, ‘गोदान’, ‘दिल एक मंदिर’ और ‘दूज का चांद’ जैसी फिल्मों मे मिली कामयाबी के जरिये वह दर्शको के बीच अपने अभिनय की धाक जमाते हुए ऐसी स्थिति में पहुंच गये जहां वह अपनी भूमिकाएं स्वयं चुन सकते थे।1965 में प्रदर्शित फिल्म ‘काजल’ की जबरदस्त कामयाबी के बाद राजकुमार ने अभिनेता के रूप में अपनी अलग पहचान बना ली। बी.आर .चोपड़ा की 1965 में प्रदर्शित फिल्म ‘वक्त’ में अपने लाजवाब अभिनय से वह एक बार फिर से दर्शक का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने में सफल रहे। फिल्म में राजकुमार का बोला गया एक संवाद, ‘चिनाय सेठ.. जिनके घर शीशे के बने होते हैं वो दूसरो पे पत्थर नहीं फेंका करते’ और ‘ये छुरी बच्चों के खेलने की चीज नहीं, हाथ कट जाये तो खून निकल आता है’ दर्शकों के बीच काफी लोकप्रिय हुए।
वक्त की कामयाबी से राजकुमार शोहरत की बुंलदियों पर जा पहुंचे। इसके बाद उन्होंने ‘हमराज’, ‘नीलकमल’, ‘मेरे हुजूर’, ‘हीर रांझा’ और ‘पाकीजा’ में रूमानी भूमिकाए भी स्वीकार कीं। जो उनके फिल्मी चरित्र से मेल नहीं खाती थीं। इसके बावजूद राजकुमार दर्शकों का दिल जीतने मे सफल रहे। ‘पाकीजा’ में उनका बोला गया एक संवाद, ‘आपके पांव देखे बहुत हसीन हैं, इन्हें जमीन पर मत उतारिएगा मैले हो जाएंगें’ इस कदर लोकप्रिय हुआ कि लोग गाहे बगाहे उनकी आवाज की नकल करने लगे।
1978 मे प्रदर्शित फिल्म ‘कर्मयोगी’ में राज कुमार के अभिनय और विविधता के नये आयाम दर्शको को देखने को मिले। इस फिल्म मे उन्होंने दो अलग-अलग भूमिकाओं मे अपने अभिनय की छाप छोड़ी। अभिनय में एकरपता से बचने और खुद को चरित्र अभिनेता के रूप में भी स्थापित करने के लिए उन्होंने स्वयं को विभिन्न भूमिकाओं में पेश किया। इस क्रम में 1980 में प्रदर्शित फिल्म ‘बुलंदी’ में वह चरित्र भूमिका निभाने से भी नहीं हिचके। इस फिल्म में भी उन्होंने दर्शकों का मन मोहे रखा।1991 मे प्रदर्शित फिल्म ‘सौदागर’ में राजकुमार के अभिनय के नये आयाम देखने को मिले। सुभाष घई की निर्मित इस फिल्म में राज कुमार वर्ष 1959 मे प्रदर्शित फिल्म ‘पैगाम’ के बाद दूसरी बार दिलीप कुमार के सामने थे और अभिनय की दुनिया के इन दोनों महारथियों का टकराव देखने लायक था। नब्बे के दशक मे राजकुमार ने फिल्मों मे काम करना काफी कम कर दिया। इस दौरान उनकी ‘तिरंगा’, ,पुलिस और मुजिरम’, ‘इंसानियत के देवता’, ‘बेताज बादशाह’, ‘जवाब’, ‘गॉड और गन’ जैसी फिल्में प्रदर्शित हुईं।
नितांत अकेले रहने वाले राजकुमार ने शायद यह महसूस कर लिया था कि मौत उनके काफी करीब है। इसीलिये अपने बेटे पुरू राजकुमार को उन्होंने अपने पास बुला लिया और कहा, ‘देखो मौत और जिंदगी इंसान का निजी मामला होता है। मेरी मौत के बारे में मेरे मित्र चेतन आनंद के अलावा और किसी को नहीं बताना। मेरा अंतिम संस्कार करने के बाद ही फिल्म उद्योग को सूचित करना।’

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