

गोबर से तैयार होगा मछलियों का देसी खाना, बढ़ेंगी पांच गुना ज्यादा
कृषि / पर्यावरण, बिहार July 10, 2017कंपोजिट फिश कल्चर पर दिया जा रहा जोर,अनुसंधान में पाया गया है कि पांच-छह फीट की गहराई में मछलियां सबसे अधिक तेजी से बढ़ती हैं क्योंकि सूर्य की किरणों के जल से छन-छन कर पहुंचने के कारण इस गहराई तक प्लैंक्टन पाई जाती है। पानी के अलग-अलग स्तरों पर प्लैंक्टन की मात्रा में अंतर होता है। ऊपरी स्तर पर सूर्य किरणों की अधिक उपलब्धता के कारण कुल प्लैंक्टन का लगभग 60 प्रतिशत होता है जबकि मध्य और निचले स्तर पर 20-20 प्रतिशत प्लैंक्टन होता है। सभी मछलियां अलग-अलग स्तर में भोजन तलाशती हैं। कॉमन कॉर्प और कतला ऊपरी स्तर में, ग्रासकॉर्प और रेहू मध्य स्तर में और सिल्वर कॉर्प और नैनी निचले स्तर में अधिक भोजन तलाशती हैं। तालाब के विभिन्न स्तरों के भोज्य पदार्थों का पूरा दोहन करने के लिए कंपोजिट फिश कल्चर पर जोर दिया जाता है। तीन देसी मछली कतला, रेहू और नैनी और तीन विदेशी मछली कॉमन कॉर्प, ग्रास कार्प और सिल्वर कॉर्प एक साथ मिला कर डाली जाती हैं।
चारे का उपयोग है सीमित
प्रदेश के अधिकतर मछलीपालक तालाब में जियरा डाल देते हैं लेकिन पैसे की कमी के कारण चारा खरीदने की स्थिति में नहीं रहते हैें। चारा नहीं डालने के कारण मछलीपालकों को बहुत नुकसान हो रहा है। आंध्र प्रदेश में कृत्रिम चारा के बल पर 4-5 टन प्रति हेक्टेयर मछली उत्पादन होता है जबकि बिहार में मात्र 0.8-1.0 टन प्रति हेक्टेयर। नई तकनीक से यहां भी 4-5 टन प्रति हेक्टेयर का उत्पादन किया जा सकता है और वह भी बिना अतिरिक्त खर्च।
किसी भी गोबर का इस्तेमाल
मछलियों के चारे के रूप में गाय-भैंस समेत किसी भी जानवर का गोबर इस्तेमाल किया जा सकता है। गाय और भैंस के गोबर को सीधे तालाब में डाल दिया जाता है जबकि बकरी के मल का चूरन बना कर उसमें डालना पड़ता है क्योंकि कड़ा होने के कारण यह पानी में जल्द घुलता नहीं है।
अनुपम कुमार >पटना ९३३४९४०२५६
मछलियों के पानी में मिलने वाले पोषक तत्वों पर पलने की बात तो सभी जानते हैं लेकिन गोबर पर भी मछलियां पल सकती हैं। इसे मुमकिन बनाया है इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चर रिसर्च ((आईसीएआर)) के वैज्ञानिकों ने। उनके अनुसंधान से यह साबित हो गया है कि गोबर में मौजूद तत्व भी उसी तरह से मछलियों के ग्रोथ को बढ़ा सकता है। आईसीएआर ने गोबर से मछलियों का देसी खाद्य पदार्थ तैयार किया है। इस अनुसंधान का सबसे बड़ा फायदा यह है कि गरीब मछलीपालक भी इसका उपयोग कर सकता है।
बनता है प्लैंक्टन
गोबर में नाइट्रोजन की मात्रा अधिक होती है। इसका अधिकतर भाग पानी से प्रतिक्रिया कर प्लैंक्टन में परिवर्तित हो जाता है। इसे खाकर मछलियां तेजी से बड़ी होती हैं और इनका वजन भी बढ़ता है।
गोबर की मात्रा
जियरा ((छोटी मछली)) डालते समय प्रति हेक्टेयर दो हजार किलो का पहला डोज दिया जाता है। उसके बाद प्रत्येक महीने एक हजार किलो गोबर की जरूरत पड़ती है। एक भैंस से प्रतिदिन 20-22 किलो जबकि गाय से 14-18 किलो की उपलब्धता रहती है। ऐसे में एक हेक्टेयर में खेती के लिए 3-5 भैंस, 5-7 गाय या 50-60 बकरियों की जरूरत पड़ती है।
बहुत उपयोगी साबित होगी यह खोज
॥ आईसीएआर की यह खोज बहुत उपयोगी साबित होगी। इससे गरीब मछलीपालक भी मछलीपालन का अधिक से अधिक लाभ ले सकेंगे और प्रदेश में इसका तेजी से विकास होगा।
डॉ कमल शर्मा, प्रधान वैज्ञानिक, पशु व मत्स्य संसाधन, आईसीएआर, पटना
पैसे की कमी की वजह से चारे का जुगाड़ नहीं कर पाते हैं मछलीपालक
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