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उमराव जान जैसी फिल्मों के संगीतकार खय्याम नहीं रहे, 92 वर्ष की उम्र में मुंबई में निधन

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पद्म भूषण से सम्मानित खय्याम साहब मुंबई के सुजय अस्पताल में भर्ती थे
खय्याम की पहली कमाई 200 रुपए थी, 90वें जन्मदिन पर जरूरतमंद कलाकारों की मदद के लिए ट्रस्ट बनवाया था
मोदी ने शोक व्यक्त कर ट्वीट में लिखा-खय्याम ने यादगार धुनों से अनगिनत गीतों को अमर बना दिया
‘कभी-कभी’ और ‘उमराव जान’ जैसी फिल्मों के संगीतकार खय्याम का सोमवार रात निधन हो गया। 92 वर्षीय खय्याम साहब लंग्स में इन्फेक्शन के चलते पिछले कुछ दिनों से बीमार थे और मुंबई के सुजय अस्पताल के आईसीयू में भर्ती थे। वे पद्म भूषण और संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित थे।
90वें जन्मदिन पर ट्रस्ट बनाया
90वें जन्मदिन पर खय्याम साहब ने बॉलीवुड को एक अनोखा रिटर्न गिफ्ट दिया था। उन्होंने जीवन भर की कमाई को एक ट्रस्ट के नाम करने का ऐलान किया था। तकरीबन 12 करोड़ रुपए की रकम ट्रस्ट को दी गई। इस पैसे से जरूरतमंद कलाकारों की मदद की जाने लगी। गजल गायक तलत अजीज और उनकी पत्नी बीना को मुख्य ट्रस्टी बनाया गया।
पहली कमाई 200 रुपए
खय्याम ने कभी-कभी, उमराव जान, त्रिशूल, नूरी, बाजार, रजिया सुल्तान जैसी फिल्मों के संगीत दिया। ‘इन आंखों की मस्ती के’, ‘बड़ी वफा से निभाई हमने…’, ‘फिर छिड़ी रात बात फूलों की’ जैसे गीत रचने वाले खय्याम ने निजी जिंदगी में कई मुश्किलों का सामना किया। द्वितीय विश्वयुद्ध में वे एक सिपाही के रूप में अपनी सेवाएं दे चुके हैं। पंजाब के नवांशहर में जन्मे मोहम्मद जहूर खय्याम ने करियर की शुरुआत 1947 में की थी।
एक इंटरव्यू में उन्होंने बताया था- मैं केएल सहगल से प्रेरित होकर हीरो बनना चाहता था। मुंबई आया तो मुझे मेरे गुरु संगीतकार हुस्नलाल-भगतराम ने प्लेबैक सिंगिंग का मौका दे दिया। उस गाने में मेरी को-सिंगर जोहरा जी थीं और कलाम फैज अहमद फैज का था। मेरी पहली कमाई 200 रुपए थी। वहां से आगे बढ़ा और यहां तक पहुंचा। कभी कभी'(1977) और ‘उमराव जान'(1982) के लिए खय्याम ने बेस्ट म्यूजिक का फिल्मफेयर अवॉर्ड जीता था।
पंजाब के जिला जालंधर के राहों कसबे में पैदा हुआ। तब नवांशहर तहसील थी, जो जिला बन गया है। हमारे घर में तालीम को बहुत अहमियत दी जाती थी। खुलापन था। देशप्रेम और मेहनत व ईमानदारी से काम करने की सीख दी गई थी। मुझे केएल सहगल के गाने सुनने और फिल्में देखने का बड़ा शौक था। कस्बे में सिनेमाहॉल नहीं था, इसलिए हफ्ते में जब आधी छुट्टी मिलती तो सब जालंधर में बड़े भाईजान के पास जाते। वहां सब बच्चे मस्ती करते। उन दिनों ट्रेन के सफर में बहुत से नए तजुर्बे हुए। राहों से चार-पांच स्टेशन आगे बढ़ते ही थे कि अब्बाजान अपने ही अंदाज़ में हिंदी-उर्दू-पंजाबी अंदाज़ में कहने लगते – चलो भई, उठो, सलाम करो ते परणाम करो। ये वही गांव है – खटकड़कलां, जहां शहीद भगत सिंह पैदा हुए थे। पूरे हिंदुस्तान की रूह हैं वो, लेकिन हम उनके गांव के करीबी हैं तो हमारे रोएं-रोएं में वो हवा और खुशबू रहती थी।
वहां से ट्रेन चलती और हम शहादत की कहानियां सुनते रहते। बहरहाल, जालंधर पहुंचने से पहले अब्बा कई बार बता चुकते – वतन के लिए उन्होंने अपने आपको कुर्बान कर दिया। फांसी के तख्ते पर वे हंसते-गाते हुए चढ़े – मेरा रंग दे बसंती चोला! राम प्रसाद बिस्मिल का एक और गीत – `सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है’ वो सुनाते। इतना इंस्पिरेशन मेरी ज़िंदगी के लिए बहुत बड़ा योगदान है। मैं हर काम उसी उसूल के तहत करता रहा हूं कि मादरे वतन (मातृभूमि) की क्या वैल्यू है, हमें कितनी ज़िम्मेदारी से काम लेना है।
हमने सुना है कि `उमराव जान’ की शूटिंग के दौरान आशा जी ने आपको कोई कसम दी थी?
खय्याम : `उमराव जान’ का संगीत तैयार करना बहुत बड़ी चुनौती थी। हम सब आशा जी से मिले, उन्हें बताया कि इस फिल्म के सामने `पाकीज़ा’ की मिसाल है। कामयाबी, मेकिंग, संगीत, शायरी, अदाकारी – सबके क्या कहने। लेकिन चैलेंज ले लिया तो सोचना क्या। सब गुरुओं को याद करके पिक्चर का बेसिक सेट किया। आशा जी बेहद टैलेंटेड और सिंसियर हैं। उनका मेरा साथ 1948 से है, जब मैं शर्मा जी के नाम से पांच साल तक संगीत दे चुका था। उन्होंने कहा, `आप संगीत बनाइए, हम मेहनत करेंगे। एक और बात बताऊं – लता जी का विकल्प मेरे सामने था, क्योंकि वे `पाकीज़ा’ में गा चुकी थीं, लेकिन जगजीत जी ने आशा जी के नाम का सुझाव दिया। आशा जी ने भी पूरी लगन से तैयारी की। जितनी मैंने रिहर्सल कराई, उन्होंने सब की। पूरी बारीकियां, नाज़ुक बातें समझ लीं। मैंने सोचा कि चूंकि रेखा जी हमारी हीरोइन हैं, इसलिए आशा जी की आवाज को उनसे मैच करने के लिए डेढ़ सुर नीचा रखा। रिहर्सल तो हो गई। जब `दिल चीज क्या है’ की रिकॉर्डिंग की बारी आई तो उन्होंने जगजीत जी को बुलाया और कहा – खय्याम साहब ने सुर कौन-सा रख लिया है? मेरा सुर वो भूल गए हैं? मैं गा ही नहीं पा रही हूं।
मैंने बताया – जान-बूझकर सुर नीचा रखा है, क्योंकि आप आशा जी नहीं हैं, उमराव जान हैं। वहां सुर नीचे, हलके, धीमे, नज़ाकत भरे ही होंगे। वे बोलीं – उमराव जान जब गा ही नहीं पा रही है तो रिकॉर्डिंग कैसे होगी? खैर, मैंने सिर्फ इतना कहा – अभी मैंने जो सुर सेट किया है, उससे एक टेक ले लेते हैं। फिर आपके हिसाब से रिकॉर्ड कर लेंगे। जरूरी तैयारी में आधा-पौना घंटा लगेगा। उन्होंने कहा – प्रदीप (खय्याम के बेटे) की कसम खाइए कि ईमानदारी से मेरे सुर से रिकॉर्ड करेंगे। मैंने कहा – आशा जी, आप भी सरस्वती मां की कसम लीजिए कि जो मैंने आपको सिखाया है, रिहर्सल कराई है, उसी टोन में आप गाएंगी। स्टूडियो में टेंशन था कि आशा जी और खय्याम-जगजीत के बीच सुर को लेकर डिफरेंसेज हैं। लोगों को डर था कि कहीं आशा जी वॉकआउट न कर जाएं। गाना खत्म हो गया। हर ओर सन्नाटा था। आशा जी की आंखें मुंदी हुई थीं। रिकॉर्डिंग रूम का दरवाज़ा खुला। उस साउंड वे ट्रांस से निकलीं और फिर बोलीं – `क्या ये मेरी आवाज़ थी? क्या मैं गा रही थी?’ और इस तरह मेरा सेट किया सुर ही फाइनल हो गया। यही नहीं, आशा जी ने कहा कि अब हर गाना आप इसी सुर में रखें।
प्रधानमंत्री मोदी ने शोक व्यक्त किया

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