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उठो, जागो और तब तक मत रुको, जब तक कि ध्येय की प्राप्ति न हो जाये–विवेकानंद

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12 जनवरी विवेकानंद का जन्म दिवस है. इस प्रेरक दिन को 1985 से भारत में राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है. संयुक्त राष्ट्र ने 1985 को अंतरराष्ट्रीय युवा वर्ष घोषित किया था. उसी साल भारत सरकार ने विवेकानंद के जन्म दिवस को प्रतिवर्ष राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की थी. राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में इस दिन के चुनाव को लेकर सरकार का विचार था कि विवेकानंद का दर्शन व उनका जीवन भारतीय युवकों के लिए प्रेरणा का बहुत बड़ा स्रोत हो सकता है.महज 39 वर्ष 5 महीने और 24 दिन का छोटा सा जीवन. लेकिन इस छोटे से जीवनकाल में ही उन्होंने उन्होंने विश्व को वेदांत के मर्म से परिचित कराया. विवेकानंद ने राष्ट्र निर्माण में युवाओं की भूमिका को सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना. युवाओं को रोज दौड़ने और फुटबाॅल खेलने की प्रेरणा देनेवाले इस आधुनिक युवा संत ने युवाओं का इस बात के लिए आह्वान किया था कि वे रूढ़िवादी जड़ताओं से निकल कर नये भारत के निर्माण का अगुआ बनें.आज जबकि भारत में करीब 60 करोड़ लोग 25 से 30 वर्ष के हैं और यह स्थिति वर्ष 2045 तक बनी रहनेवाली है, तो यह देखना दिलचस्प है कि देश की तरुणाई में क्या उतनी ही ऊर्जा और तेज है, जिसकी कामना स्वामी विवेकानंद ने की थी. निस्संदेह बीते दो-ढाई दशकों में भारतीय युवाओं ने सूचना तकनीक जैसे उद्यम के नये क्षेत्रों में बड़ी कामयाबी हासिल की है. पर इस कामयाबी से अलग एक दूसरी तसवीर भी है, जो खासी चिंताजनक है.कलकत्ता के शिमला पल्ली में 12 जनवरी, 1863 में एक संभ्रांत परिवार में जन्मे विवेकानंद का अध्यात्म के प्रति झुकाव बचपन से ही था और छात्र जीवन में उन्होंने पूर्वी और पश्चिमी देशों की धर्म तथा दर्शन से जुड़ी पद्धतियों का गहराई से अध्ययन किया. स्वामी अदीश्वरानंद ने 1893 में शिकागो में हुई धर्म संसद में स्वामी विवेकानंद के प्रेरक उद्बोधन के बारे में लिखा है कि उन्होंने अपने विचारों से अमेरिकी लोगों के दिल को छुआ. उन्होंने अपनी जादुई भाषण शैली, रूहानी आवाज और क्रांतिकारी विचारों से अमेरिका के आध्यात्मिक विकास पर गहरी छाप छोड़ी.
भारतीय सांख्यिकी विभाग द्बारा जारी आंकड़ों के अनुसार, देश में बेरोजगारों की संख्या लगातार बढ़ रही है. देश में बेरोजगारों की संख्या 11.3 करोड़ से अधिक है. 15 से 60 वर्ष आयु के 74.8 करोड़ लोग बेरोजगार हैं, जो काम करनेवाले लोगों की संख्या का 15 प्रतिशत है. वर्ष 2001 की जनगणना में जहां 23 प्रतिशत लोग बेरोजगार थे, वहीं 2011 की जनगणना में इनकी संख्या बढ़ कर 28 प्रतिशत हो गयी. बेरोजगारी युवाओं को लगातार हताशा के अंधेरे की तरफ ले जा रही है. नशाखोरी और अपराध की प्रवृत्ति युवाओं में इस कदर बढ़ी है कि पंजाब जैसे राज्य में हो रहे विधानसभा चुनाव का सबसे बड़ा मुद्दा यही है. देश में युवाओं की इस त्रासद स्थिति की पुष्टि वैश्विक युवा विकास सूचकांक-2016 से होती है, जिसमें भारत 133वें स्थान पर है. यह सूचकांक राष्ट्रमंडल सचिवालय रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, नागरिक और राजनीतिक क्षेत्र में युवाओं के लिए अवसर की संभावना के आधार पर तैयार करता है.बात युवाओं की शिक्षा की करें, तो इसे आज जिस तरह केवल रोजगार और आय से जोड़ दिया गया है, वह सही नहीं है. इस बारे में विवेकानंद की स्पष्ट धारणा है कि शिक्षा ऐसी हो, जिससे चरित्र निर्माण हो, मानसिक शक्ति का विकास हो, ज्ञान का विस्तार हो और जिससे हम अपने पैरों पर खड़े होने में सक्षम बन जाएं.स्वामी विवेकानंद महान दार्शनिक और वक्ता जरूर हुए, पर वे अपने छात्र जीवन में बहुत मेधावी नहीं थे. इस दिलचस्प तथ्य का खुलासा उन पर लिखी गयी एक नयी किताब में किया गया है. ‘द मॉडर्न मॉन्क : व्हाट विवेकानंद मीन्स टू अस टुडे’ के लेखक हिडल सेनगुप्ता कहते हैं कि विवेकानंद की आधुनिकता ही है, जो हमें आज भी आकर्षित करती है.सितंबर, 1893 में उन्होंने अमेरिका में होनेवाले सर्वधर्म सम्मेलन में भाग लेने का निश्चय किया. 31 मई, 1893 को उनकी यात्रा प्रारंभ हुई. चीन, जापान और कनाडा होते हुए 30 जुलाई, 1893 को वे शिकागो पहुंचे. धुन के पक्के विवेकानंद को इस सम्मेलन में शामिल होने की शर्तों की जानकारी भी नहीं थी और वे अपने साथ कोई संबंधित प्रमाण पत्र भी नहीं ले गये थे, लिहाजा वहां उन्हें बड़ी दिक्कत हुई.
शिकागो पहुंचने के बाद जब उन्होंने सर्वधर्म सम्मेलन की तारीख पता की, तो पता चला कि यह सितंबर के प्रथम सप्ताह में होगा और प्रतिनिधियों के पंजीकरण की तारीख निकल चुकी है एवं बिना परिचय पत्र के उसमें भाग लेना संभव नहीं है. कहीं से कोई मदद नहीं मिलने पर उन्होंने मद्रास में रहनेवाले अपने एक मित्र को तार भेजा. उनकी जेब खाली थी. सम्मेलन के उद्घाटन तक उनका गुजारा चलना कठिन था. वे बोस्टन चले गये. अनजान होते हुए भी उन्होंने लोगों को आकर्षित किया. बोस्टन में हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर राइट ने सम्मेलन के अध्यक्ष को पत्र लिखा. उन्होंने शिकागो का टिकट कटा दिया और सम्मेलन की समिति को विवेकानंद के रहने की व्यवस्था करने के लिए लिखा. उनकी सारी कठिनाईयां दूर हो गयीं. विवेकानंद शिकागो लौट आये, लेकिन समिति का पता खो गया. हार माने बिना किसी तरह वे सम्मेलन स्थल तक पहुंच गये.
11 सितंबर, 1893 को सात हजार लोगों से खचाखच भरे हाॅल में धर्म महासभा प्रारंभ हुई. जब उनकी बारी आयी, तो वे मुश्किल से कह पाये- अमेरिकावासी भाइयों और बहनों. लोगों के आकर्षण के बीच वे धाराप्रवाह बोलते रहे. वे सचमुच पहले व्यक्ति थे, जिसने सम्मेलन की औपचारिकता से इतर जनता से उसकी भाषा में बात की. दूसरे दिन अखबारों ने उन्हें धर्म महासभा का सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति घोषित कर दिया. एक सामान्य संन्यासी युगपुरुष बन गया.
उन्होंने कहा-मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूं, जिसने संसार को सहिष्णुता और सार्वभौम स्वीकृति, दोनों की ही शिक्षा दी है. हमलोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में विश्वास नहीं करते, वरन् समस्त धर्मों को सच्चा मान कर स्वीकार करते हैं. मैं हिंदू हूं. मैं अपने क्षुद्र कुएं में बैठा यही समझता हूूं कि मेरा कुंआ ही संपूर्ण संसार है.
ईसाई भी अपने क्षुद्र कुएं में बैठा हुआ यही समझता है कि सारा संसार उसी के कुएं में है, और मुसलमान भी अपने क्षुद्र कुएं में बैठा हुआ उसी को सारा बह्मांड मानता है. मनुष्य में अंतर्निहित दिव्यता और उसकी विकसित होने की अपार क्षमता के अतिरिक्त अन्य कोई सिद्धांत नहीं है. प्रत्येक को दूसरों की भावना आत्मसात करनी है और अपनी विशिष्टता को अक्षुण्ण रखते हुए अपने नियमों के अनुसार विकास करना है.
वर्ष 1893 के दिसंबर तक वे पश्चिमी देशों में रहे. 30 दिसंबर, 1896 को नेपल्स से विदा हुए और 20 फरवरी, 1897 को कलकत्ता पहुंचे. मई, 1897 में उन्होंने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की. जून, 1899 में विवेकानंद दोबारा विदेश यात्रा को रवाना हुए. अदन होते हुए 31 जुलाई को लंदन पहुंचे. लंदन में दो सप्ताह रह कर न्यूयार्क के लिए रवाना हो गये. फिर पेरिस, हंगरी, रोमानिया, सरबिया, बुलगारिया और एथेंस होते हुए काहिरा पहुंचे. दिसंबर, 1900 को वे बेलूर मठ वापस आ गये.
हम जिन भी संतों को जानते हैं, वे उन सबसे अलग हैं. न तो इतिहास उन्हें बांध पाया और न ही कोई कर्मकांड. वह अपने आसपास की हर चीज पर और खुद पर भी लगातार सवाल उठाते रहते थे. सेनगुप्ता के मुताबिक, जिस व्यक्ति की विद्वत्ता और अंगरेजी भाषा का कौशल शिकागो धर्म संसद में केवल अमेरिकियों को ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया को अपना कायल बनाने के लिए काफी थे, उसे इस विषय में बहुत कम अंक मिले थे. वे लिखते हैं, उन्होंने विश्वविद्यालय की तीन परीक्षाएं दीं- एंट्रेंस एग्जाम, फर्स्ट आर्ट्स स्टैंडर्ड और बैचलर ऑफ आर्ट्स. एंट्रेस एग्जाम में अंगरेजी भाषा में उन्हें 47 प्रतिशत अंक मिले थे, एफएएस में 46 प्रतिशत और बीए में 56 प्रतिशत अंक.
गणित और संस्कृत जैसे विषयों में भी उनके अंक औसत ही रहे. लिहाजा, जो युवा स्कूल-कॉलेज या प्रतियोगी परीक्षाओं के दबाव में खुद को लगातार निराशा की तरफ धकेले जा रहे हैं, उन्हें यह समझना चाहिए कि जीवन का लक्ष्य अगर बड़ा है, तो फिर उसे प्राप्त करने से हमें वे विफलताएं भी नहीं रोक सकतीं, जो जीवन की तात्कालिक स्थितियों में बहुत बड़ी लगती हैं. इस सबक की सबसे बड़ी मिसाल के रूप में हमारे सामने स्वामी विवेकानंद का जीवन है.विवेकानंद ने अमेरिका और इंगलैंड जैसी महाशक्तियों को भारतीय अध्यात्म के प्रति प्रेरित किया. दिलचस्प है कि विवेकानंद जिस समय शिकागो गये थे, उस वक्त अमेरिका गृहयुद्ध जैसी स्थिति से जूझ रहा था और तथाकथित वैज्ञानिक प्रगति ने धार्मिक मान्यताओं की जड़ों को हिला दिया था. ऐसे में अमेरिकी लोग एक ऐसे दर्शन की प्रतीक्षा में थे, जो उन्हें इस संकट से मुक्ति दिलाये. विवेकानंद ने अपने विचारों से उनकी इच्छा की पूर्ति के लिए आशा की किरण दिखायी. विवेकानंद ने अपने जीवन के आखिरी दिन बेलूर स्थित रामकृष्ण मठ में बिताये.
लगातार यात्राओं से उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया और व शारीरिक रूप से कमजोर होते गये. बताया जाता है कि उन्होंने अपने निर्वाण से पहले यह कह दिया था कि वह 40 वर्ष की उम्र तक जिंदा नहीं रह पायेंगे. उनकी भविष्यवाणी सच साबित हुई. इस महान आध्यात्मिक गुरु ने अपने विचारों से विश्व को प्रकाशित करने के बाद चार जुलाई, 1902 को दुनिया को अलविदा कह दिया.

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